सार
विश्व हिंदी दिवस की कल्पना देश ने कर ली, उसे लागू भी कर दिया। लेकिन भारतीय भाषाओं को लेकर जो माहौल मिलना चाहिए था, वैसा नहीं मिला। हालांकि पिछले कुछ साल में हालात बदले हैं।
विश्व हिंदी दिवस की कल्पना देश ने कर ली, उसे लागू भी कर दिया। लेकिन भारतीय भाषाओं को लेकर जो माहौल मिलना चाहिए था, वैसा नहीं मिला। हालांकि पिछले कुछ साल में हालात बदले हैं। नई शिक्षा नीति में एक बार फिर प्राथमिक शिक्षा में स्थानीय और मातृभाषाओं का प्रयोग बढ़ाने और उनके जरिये शिक्षा देने की बात की गई है। लेकिन सर्वोच्च नौकरशाही की जो स्थिति है, कम से कम भाषाओं के संदर्भ में पाखंड या दिखावा ही नजर आता है। चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदी के प्रयोग में ज्यादा सहज नजर आते हैं, नीतियों में हिंदी समेत भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देते नजर आते हैं, इसका असर नौकरशाही पर भी दिखता है। नौकरशाही की एक विशिष्टता है कि वह सर्वोच्च नेतृत्व की तरह व्यवहार करने लगती है। हालांकि ज्यादातर उसका यह व्यवहार दिखावा होता है, अंत:करण में इस बदलाव का गहरा असर कम ही नजर आता है। चूंकि भाषा को लेकर औपनिवेशिक सोच गहरे तक बैठी है और इसी सोच वाली शिक्षा व्यवस्था से निकली नौकरशाही है, इसलिए हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर जमीनी बदलाव कम नजर आ रहा है।
वैसे विश्व की प्रभावशाली ताकतों का कम से कम भारत के संदर्भ में हिंदी को लेकर नजरिया बदलने लगा है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैंक्रो हों या डोनाल्ड ट्रंप या फिर बेंजामिन नेतन्याहू, वे अब हिंदी में भारतीय नेतृत्व को सोशल मीडिया पर संदेश देने लगे हैं। माना जाता रहा है कि प्रवासी भारतीयों से सिर्फ अंग्रेजी में ही संवाद किया जा सकता है। लेकिन मोदी ने इस अवधारणा को तोड़ा। यही वजह है कि अब विकसित मुल्कों के नेता भी हिंदी के इक्के-दुक्के वाक्यों के जरिये भारतीयों के बीच प्रभाव बढ़ाने लगे हैं। सोशल मीडिया पर संयुक्त राष्ट्र ने 2018 से हिंदी में संदेशों का आदान-प्रदान शुरू किया, जो बदस्तूर जारी है। इसके लिए साल 2018 में भारत सरकार ने वैश्विक मंच पर हिंदी को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र से एक समझौता किया था। इसे साल 2020 में पांच साल के लिए बढ़ाया गया। बीते साल 12 जून को संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव पारित करके अपने महत्वपूर्ण संचार और संदेशों को हिंदी में भेजने और प्रसारित करने का फैसला लिया।
राजनीतिक नेतृत्व की परिकल्पना के मुताबिक नौकरशाही नीतियां बना तो देती है, लेकिन अपनी खास तरह की उपजाऊ मानसिकता के चलते नौकरशाही उसमें भी अपने लिए राह निकाल लेती है। भारतीय भाषाओं को लेकर उसकी खास सोच पहले से रही है, वह उन्हें दोयम मानती रही है। इसलिए हिंदी के लिए किए जा रहे प्रयासों में गंभीरता नहीं रह पाती। हिंदी की वैश्विक उपस्थिति बढ़ाने और उसकी तरफ विश्व का गंभीर ध्यान आकर्षित करने के लिए इस सोच में सुधार की जरूरत है। जब तक इस ओर ध्यान नहीं दिया जाएगा, विश्व हिंदी दिवस औपचारिक ही बना रहेगा।
विस्तार
विश्व हिंदी दिवस के मौके पर यह मीमांसा स्वाभाविक है कि पिछले सोलह सालों में हिंदी ने वैश्विक स्तर कितना कुछ हासिल किया है? यह विरोधाभास ही कहा जाएगा कि साल 2006 में दस जनवरी को हर साल विश्व हिंदी दिवस मनाने की घोषणा जिस मनमोहन सिंह सरकार ने की थी, उसी के कार्यकाल में देश की सर्वोच्च सेवाओं से हिंदी की परोक्ष रूप से विदाई की शुरुआत हुई। संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में ऐसी व्यवस्था की शुरुआत हुई, जिसकी वजह से हिंदी ही नहीं, भारतीय भाषाओं की विदाई शुरू हो गई। इसके लिए सी-सैट प्रणाली को जिम्मेदार ठहराया जाता है। नई सरकार में भी इस सिस्टम में बदलाव नहीं आया। अंग्रेजी के मशहूर समीक्षक और निबंधकार ईएम फास्टर ने अपनी पुस्तक आस्पेक्ट्स ऑफ नॉवेल में बड़ी बात कही है। उन्होंने साहित्य के बारे में कहा है कि जिस साहित्य की जड़ें जितनी स्थानीय होंगी, वह उतना ही अंतरराष्ट्रीय हो सकता है। भाषाओं के बारे में भी ऐसा कहा जा सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि उसे सही माहौल मिले।
विश्व हिंदी दिवस की कल्पना देश ने कर ली, उसे लागू भी कर दिया। लेकिन भारतीय भाषाओं को लेकर जो माहौल मिलना चाहिए था, वैसा नहीं मिला। हालांकि पिछले कुछ साल में हालात बदले हैं। नई शिक्षा नीति में एक बार फिर प्राथमिक शिक्षा में स्थानीय और मातृभाषाओं का प्रयोग बढ़ाने और उनके जरिये शिक्षा देने की बात की गई है। लेकिन सर्वोच्च नौकरशाही की जो स्थिति है, कम से कम भाषाओं के संदर्भ में पाखंड या दिखावा ही नजर आता है। चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदी के प्रयोग में ज्यादा सहज नजर आते हैं, नीतियों में हिंदी समेत भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देते नजर आते हैं, इसका असर नौकरशाही पर भी दिखता है। नौकरशाही की एक विशिष्टता है कि वह सर्वोच्च नेतृत्व की तरह व्यवहार करने लगती है। हालांकि ज्यादातर उसका यह व्यवहार दिखावा होता है, अंत:करण में इस बदलाव का गहरा असर कम ही नजर आता है। चूंकि भाषा को लेकर औपनिवेशिक सोच गहरे तक बैठी है और इसी सोच वाली शिक्षा व्यवस्था से निकली नौकरशाही है, इसलिए हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर जमीनी बदलाव कम नजर आ रहा है।
वैसे विश्व की प्रभावशाली ताकतों का कम से कम भारत के संदर्भ में हिंदी को लेकर नजरिया बदलने लगा है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैंक्रो हों या डोनाल्ड ट्रंप या फिर बेंजामिन नेतन्याहू, वे अब हिंदी में भारतीय नेतृत्व को सोशल मीडिया पर संदेश देने लगे हैं। माना जाता रहा है कि प्रवासी भारतीयों से सिर्फ अंग्रेजी में ही संवाद किया जा सकता है। लेकिन मोदी ने इस अवधारणा को तोड़ा। यही वजह है कि अब विकसित मुल्कों के नेता भी हिंदी के इक्के-दुक्के वाक्यों के जरिये भारतीयों के बीच प्रभाव बढ़ाने लगे हैं। सोशल मीडिया पर संयुक्त राष्ट्र ने 2018 से हिंदी में संदेशों का आदान-प्रदान शुरू किया, जो बदस्तूर जारी है। इसके लिए साल 2018 में भारत सरकार ने वैश्विक मंच पर हिंदी को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र से एक समझौता किया था। इसे साल 2020 में पांच साल के लिए बढ़ाया गया। बीते साल 12 जून को संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव पारित करके अपने महत्वपूर्ण संचार और संदेशों को हिंदी में भेजने और प्रसारित करने का फैसला लिया।
राजनीतिक नेतृत्व की परिकल्पना के मुताबिक नौकरशाही नीतियां बना तो देती है, लेकिन अपनी खास तरह की उपजाऊ मानसिकता के चलते नौकरशाही उसमें भी अपने लिए राह निकाल लेती है। भारतीय भाषाओं को लेकर उसकी खास सोच पहले से रही है, वह उन्हें दोयम मानती रही है। इसलिए हिंदी के लिए किए जा रहे प्रयासों में गंभीरता नहीं रह पाती। हिंदी की वैश्विक उपस्थिति बढ़ाने और उसकी तरफ विश्व का गंभीर ध्यान आकर्षित करने के लिए इस सोच में सुधार की जरूरत है। जब तक इस ओर ध्यान नहीं दिया जाएगा, विश्व हिंदी दिवस औपचारिक ही बना रहेगा।
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